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बात 73-74 की है। तब मैं पत्रकारिता के पेशे में आया ही था। बनारस के दैनिक जनवार्ता में प्रशिक्षु के रूप में काम कर रहा था।जनवार्ता को तबके कई वरिष्ठ पत्रकारों को साथ लेकर चलने का श्रेय है। ये सभी उत्तर प्रदेश के दिग्गज पत्रकार थे। यह कहना सुखद लगता है कि बनारस उन दिनों हिंदी पत्रकारिता की नाभि था। चारो ओर बनारस स्कूल की धाक थी। उन दिनों पत्रकारीय सुचिता शीर्ष पर थी जो आज दुर्लभ है। अखबारों पर इतना विश्वास रहता था कि अखबार पढ़े नहीं बांचे जाते थे,मतलब एक आदमी पढ़ रहा है चार सुन रहे हैं और लगे हाथों टिप्पणी भी कर रहे हैं। वाह गुरू का बात लिखी है। यदि कोई बात नहीं जंची तो बखिया उधेड़ने में भी संकोच नहीं। पत्रकारों का बड़ा सम्मान था, आप पत्रकार हैं मतलब कुछ विशिष्ट तो हैं ही। आम आदमी और अखबार इतने जुड़े थे कि बिना अखबार के बनारस की सुबह अधूरी मानी जाती थी। कहावत कही जाती थी- चना चबेना गंगजल और आज अखबार, काशी कबहु न छोडि़ए विश्वनाथ दरबार। आज जिस ब्रांडिंग और रीडर कनेक्ट के लिए लोग प्रयास करते हैं वह उन दिनों बिना प्रयास सिर्फ पेशे की ईमानदारी और विश्वसनीयता से प्राप्त थी। हिंदी (पत्रकारिता) को बनारस ने सैकड़ों शब्द दिये जो आज हिंदी की धरोहर हैं। उन दिनों यदि अखबार ने कोई नया शब्द लिखा तो पाठक उसका अर्थ पूछता और वह शब्द धीरे-धीरे प्रचलन में आ जाता। यदि कोई गलत शब्द प्रयोग हो जाता तो तत्काल उसपर आपत्ति आ जाती। एक बार कुछ औरते चोरी करते पकड़ी गयीं। अखबारों मे खबर छपी- तीन महिलाएं पर्स उड़ाते पकड़ी गयीं । दूसरे दिन से अखबारों में महिला शब्द के प्रयोग पर आपत्ति करते हुए सम्पादक के नाम पत्र आने लगे। उनमें यह कहा गया कि चोर औरतों को महिला क्यों लिखा गया। महिला शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया कि महिला स़भ्रांत परिवार की स्त्रियों के लिए लिखा जाना चाहिए पर्स उड़ाने वाली चोरनियोंके लिए नहीं। उनके लिए औरतें, स्त्रियां कुछ भी लिखें महिला तो कतई नहीं। किस तरह की औरतों के लिए क्या लिखा जाय इसपर कई दिनों तक रोचक बौद्धिक बहस चली। भाषा के प्रति इस तरह का आग्रह अब कहां ? अब तो हिंदी की सौत हिंगलिस पैदा हो गयी है। एक बार 74 में विधान सभा भंग कर अचानक चुनाव की घोषणा कर दी गयी। बहुगुणा जी तब कार्यवाहक मुख्यमंत्री थें। अंग्रेजी अखबारों ने इस चुनाव के लिए स्नैप इलेक्शन शब्द का इस्तेमाल किया। जनवार्ता मे विचार कर इसके लिए चट चुनाव शब्द का पहली बार इस्तेमाल किया, बाद में सभी अखबार यही लिखने लगे। प्रसंगत: यहां बहुगुणा जी के बारे दो शब्द जरूर कहना चाहूंगा। मैने उन दिनों उनकी कई चुनाव स्ाभाएं कवर की थीं। मुस्लिम समुदाय में उनका जो प्रभाव था वैसा कम लोगों का था। वह मुस्लिम क्षेत्र की चुनाव सभाओं में जिस हिंदी (उर्दू मिश्रित) में बोलते वही सचमुच में हिंदुस्तान की जुबान कही जा सकती है। किसी भी अन्य पार्टी में ऐसी भाषा बोलने वाले नेता कम थे।
मुझे याद आता है सारनाथ मे बौद्ध संगीति का आयोजन था। बर्मा(म्यामार) के प्रधान मंत्री ऊ नू उस कार्यक्रम में विशेष अतिथि के रूप में शामिल थे। पहले दिन जनवार्ता में आदरणीय प्रदीप जी ने सम्पादकीय लिखा। प्रवाह मे वह नाप से दो लाइन ज्यादा हो गया। प्रदीप जी मस्त मौला किस्म के पत्रकार थे लिखने के बाद बुलानाले पर बैठकबाजी करने चले गये थे( प्रदीप जी मेरे आदि गुरु रहे हैं,उनके जैसा प्रखर और तेजस्वी पत्रकार कम हैं।उनपर कभी अलग से–) उनका लिखा पढ़ने और कम्पोज करने वाला बनारस मे एक ही व्यक्ति था। प्रदीप जी जहां जहां नौकरी करते वह वहां-वहां जाता।प्रदीप जी की लिखावट विचित्र थी,जैसे चींटी को स्याही में डुबो कर कागज पर छोडं दिया गया हो,लेकिन वह जिस स्पीड से लिखते वह कमाल की थी। मनोविज्ञानियों का कहना है जब व्यक्ति सोचता तेज है और उस स्पीड से लिख नहीं पाता तो उसकी लिखावट बिगड़ जाती है। प्रदीप जी के बारे मे यह बिल्कुल सच है। उनके लिखे एकाघ पत्र मेरे पास हैं और मेरा दावा है कि सभी लोग उसे पढ़ नहीं पाएंगे। जब फोरमैन ने सम्पादक श्री ईश्वर देव मिश्र जी को बताया कि सम्पादकीय दो लाइन बढ़ रहा है तो किसी की उसे काट कर कम करने की हिम्मत नहीं पड़ी और प्रदीप जी को उनके अड्डों पर ढ़ुढ़वाया गया जब वह नहीं मिले तो ईश्वरदेव जी ने उसे काट कर दो लाइन र्छोटा कर दिया। दूसरे दिन सुबह जब प्रदीप जी ने वे शब्द नहीं देखे जो उन्होने भगवान बुद्ध के लिए विशेषण के रूप में प्रयुक्त किये थे तो उनका पारा चढ़ गया। दफ्तर पहुचकर उन्होने खूब हल्ला काटा। प्रदीप जी का कहना था रात भर बौद्ध साहित्य पढ़कर मैने यह सम्पादकीय लिखा था,उसमे बुद्ध के लिए ऐसे विशेषण प्रयोग किये गये थे जो बनारस के लिए सर्वथा नये होते। उन्हें काटकर मेरे श्रम को नष्टकर दिया गया। अपने शब्दों के प्रति किसे अब इतना आग्रह। प्रदीप जी के आक्रोश का ईश्वरदेव जी ने कोई जवाब नहीं दिया सिर्फ हंसकर बोले -उनका नाराज होना वाजिब है,कई शब्द ऐसे थे जिनका अर्थ मुझे भी नहीं मालुम था। मैने उन्हें ही काटकर सम्पादकीय कम कर दिया।( ईश्वरदेवजी ने ये बात भोजपूरी में कही और ठठाकर हंसे थे। क्या सादगी थी। अपनी कमी को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर उसपर हंसने का साहस भी।ईश्वरदेव जी को प्रदीप जी ने लीडर(भारत) के दिनों में सिखाया था और उनके सीनियर थे। जनवार्ता मे ईश्वरदेव जी का पद और वेतन प्रदीप जी से ज्यादा था, लेकिन प्रदीप जी के प्रति उनका आदरभाव कम न था। उन्होने कभी अपने को उनसे वरिष्ठ नहीं समझा।
बनारस स्कूल में जहां नये शब्दों का सृजन किया जा रहा था, वहीं देशज शब्दों या अंग्रेजी के शब्दों के देशज उच्चारण को भी अंगीकार किया जा रहा था और इनका धड़ल्ले से अखबारों में इस्तेमाल भी किया जा रहा था। बैंक के लिए बंक,पैसेंजर के लिए पसिंजर,स्टेशन के लिए टेशन, कर्फ्यू के लिए करफू आदि ऐसे ही शब्द थे जो अखबारों में नि:संकोच लिख्ो जाते थे। यह सिर्फ इसलिए पाठक वही शब्द पढ़े जो वह बोलता है। अब ये शब्द अखबारों से खत्म हो गये हैं। इन शब्दों के इस्तेमाल के पीछे सम्पादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर जी का यह तर्क था कि पाठक को यदि वही शब्द पढ़ने को मिलेगा जो वह रोजमर्रा की व्यवहार में बोलता है तो वह उस अखबार से अधिक जुड़ाव महसूस करेगा, जब वह अखबार का अभ्यस्त हो जाएगा तो हम शब्दों के तत्सम रूप का इस्तेमाल कर सकते हैं। पराड़कर जी के इस तर्क से आज सहमत, असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन जब उन्होने यह प्रयोग किया तो इसे तब की जरूरत कहा जा सकता है जब प्रदेश और अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में शिक्षाका प्रतिशत बहुत कम था और अखबार पढ़ने की आदत कम लोगों मे थी। हालांकि वह यह भी मानते थे कि अखबार समाचार देने के साथ ही भाषा का संस्कार और शिक्षा भी देते हैं।
जनवार्ता में अपने लगभग ढाई साल के कार्यकाल में मुझे आदरणीय त्रिलोचन शास्त्री जी का भी सानिघ्य मिला। उनकी मुझपर विशेष कृपा रहती रहती थी।(त्रिलोचन जी के बारे में पढ़ें आधारशिला का त्रिलोचन विशेषांक जिसका सम्पादन वाचस्पति जी ने किया है।) छहघंटों के समय में अधिकतर साहित्य चर्चा में ही बीतता। त्रिलोचन जी को सुनना अपने में अलग अनुभव था,इसका स्वाद वही जान सकता है जिसने उन्हें सुना हो। चर्चा चाहे जहां से शुरू हो किसी न किसी शब्द की व्युत्पति,उसकी व्याख्या,पर्याय,विलोम,समानार्थी शब्द सबकी बात हो जाती। शास्त्री जी चलते -फिरते विश्वकोष थे। वह गप्प भी इतनी गंभीरता से मारते कि सुनने वाला यकीन न करे तो क्या करे। वह शब्दों के सही उच्चारण पर विशेष जोर देते। पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग श,स और ष के उच्चारण में प्राय: सतर्क नहीं होते। ष को ख कहना तो आम बात थी। शास्त्री जी इसकी शुद्धतापर विशेष जोर देते। यज्ञ को यज्य,संस्कार को सम्सकार,ज्ञान को ज्नान कहते। आर्यसमाजी और श़ुद्धतावादी आज भी ऐसा ही उच्चारण करते हैं । (ज्ञान मंडल प्रकाशन को ज्नान मंडल कहते। ज्ञान मंडल के बाहर आज भी अंग्रेजी में यही स्पेलिंग लिखी है। कभी- कभी लोग मजाक में इसे ज्नान मंडल न कहकर जनाना मंडल कह देते।) शब्द और भाषा के प्रति वैसा आग्रह और प्यास अब कहां।
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